Monday, March 15, 2010

दाग़ की शायरी - 2

दाग की ग़ज़लों के चन्द अशाअर
(2)

तू ही अपने हाथ से जब दिल-रूबा जाता रहा
दिल की भी परवाह नही जाता रहा, जाता रहा

मर्ग-ए-दुश्मन का ज़्यादा तुम से है मुझको मलाल
दुशमनी का लुत्फ, शिकवो का मज़ा जाता रहा

किस क़दर उन को फिराक़े-ए-ग़ैर का अफसोस है
हाथ मलते-मलते सब रंग-ए-हिना जाता रहा
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दाग़ की शायरी - 1

दाग की ग़ज़लों के चन्द अशआर

(1)

सबब खुला ये हमें उन के मुँह छुपाने का
उडा न ले कोई अन्दाज़ मुस्काराने का

जफाऐं करते है थम थम के इस ख्याल से वो
गया तो फिर ये नही मेरे हाथ आने का

ख़ता मुआफ, तुम ऐ ‘दाग़’ और ख्वाहिश-ए-वस्ल
क़ुसूर है ये फ़क़त उन के मुँह लगाने का
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